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करम अपनों का था,वो काम आया

बेज़ुबां पत्थर के सर इल्ज़ाम आया


हो रहे थे रुखसत ग़मे जहां से हम

डाकिया लेके था जब पैग़ाम आया


अब तो रात भर नींद आने की नहीं

ख़्याल उनका जब सरे शाम आया


दिनभर की आवारगी का अंज़ाम है

न मैक़दे तलक पहुंचे न ज़ाम आया


आया था शहर को अलविदा कहने

न दुआ कोई ,न कोई सलाम आयां


आज ख़ुद को भी भूल चुके हैं हम

तब कहीं जाके कुछ आराम आया


उनकी बेरुख़ी से, इश्क़ हो गया है

ख़िराजे अक़ीदत में ,है नाम आया

(विनोद प्रसाद)

खिराजे अक़ीदत: श्रद्धांजलि, नज़राना

 
 
 

सांस ले सकें हम,इतनी सांस तो बचे

कोई उम्मीद ठहरे कोई आस तो बचे


दरिया से क्या वास्ता रहे अब अपना

कोई चाह तो जगे कुछ प्यास तो बचे


रोशनी बहुत थी कल तलक सेहन में

इक चिराग़ जलाओ एहसास तो बचे


लौट आने का इसरार तो किया नहीं

तन्हाईयाँ हमारी अपने पास तो बचे


ज़िदगी कुछ कुछ ज़िंदगी सी तो हो

ज़िंदा है ये जीने का विश्वास तो बचे


पत्थर तराश के,जो मूरत बना सके

इस शहर में ऐसा संगतराश तो बचे

(विनोद प्रसाद)

 
 
 

रिश्ते तो न निबाहे,कोई एहसान की तरह

आए न ख़्वाबों में कभी मेहमान की तरह


आबोहवा कुछ आजकल बदले हुए से हैं

ख़ामोशियाँ भी बेताब है तूफान की तरह


सपनों की बुझी राख हवाओं में उड़ रही

दिल भी अब दरके हुए अरमान की तरह


इन दिनों मालिक के दर जाता नहीं हूँ मैं

दुआएँ भी अता करते ,फ़रमान की तरह


हैं खेल चुके खूब, अदावत का खेल वैसे

अब तो रहें ज़ाहिर वो मेहरबान की तरह


उल्फ़त में मुनाफे की गुंज़ाईश नहीं होती

फिर भी हमें कुबूल है नुकसान की तरह


रिश्ते से है मुमकिं ये मोहब्बत का जहान

तब आए नज़र आदमी इन्सान की तरह

(विनोद प्रसाद)

 
 
 
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